साँच बराबर तप नहीं, न झूठ बराबर पाप ?

साँच बराबर तप नहीं, न झूठ बराबर पाप ?
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यह सूक्ति निर्गुण भक्ति मार्गी कवि कबीरदास जी ने कही है कि सच्चाई से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है। इस सूक्ति पर गम्भीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक है कि सच्चाई के समान या सच्चाई से बढ़कर कोई तपस्या नहीं है, तो कैसे और क्यों नही है?
सबसे पहले हमें सच्चाई का स्वरूप, अर्थ और प्रभाव को समझना होगा। सच्चाई का शाब्दिक अर्थ है- सत्य का स्वरूप या सत्यता। सत्य का स्वरूप क्या है और क्या हो सकता है, यह भी विचारणीय है। सच्चाई शब्द या सच शब्द का उद्भव संस्कृत के सत शब्द में प्रत्यय लगा देने से बना है। यह सत्य शब्द संस्कृत का शब्द अस्ति के अर्थ से हैं, जिसका अर्थ क्रिया से है। अस्ति क्रिया का अर्थ होता है। इस क्रियार्थ को एक विशिष्टि अर्थ प्रदान किया गया कि जो भूत, वर्तमान और भविष्य में भी रहे या बना रहे, वही सत्य है।
सत्य का स्वरूप बहुत ही विस्तृत और महान होता है। सत्य के सच्चे स्वरूप का ज्ञान हमें तब हो सकता है, जब हम असत्य का ज्ञान प्राप्त कर लें। असत्य से हमें क्या हानि होती है और असत्य हमारे लिए कितना निर्मम और दुखद होता है। इसका बोध जब हमें भली भाँति हो जायेगा तब हम सत्य की महानता का बोध स्वयं कर सकेंगे। गोस्वामी तुलसीदास ने इस संदर्भ में एक बहुत ही उच्चकोटि की सूक्ति प्रस्तुत की है-
नहिं असत्य सम पातक पूँजा।
गिरि सम होइ कि कोटिक गूँजा।।

अर्थात् असत्य के समान कोई पापपूँज नहीं है और असत्य को पाप पूँज पर्वत के समान करोड़ गुनी ध्वनि अर्थात् भयंकर हो सकता है।
सत्य का आचरण करने वाला व्यक्ति सच्चरित्रवान होकर महान बनता है। वह सत्य को अपने जीवन का परमोउदेश्य मान लेता है। इसके लिए वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ता है। इसके लिए वह अपने प्राणों की बाजी लगाने में भी नहीं कतराता है। सत्य का आचरण करके व्यक्ति देवत्व की श्रेणी को प्राप्त कर लेता है और अपने सत्कर्मों और आदर्शों से वह वन्दनीय और पूजनीय बन जाता है। कबीरदास ने सत्य का महत्वांकन करते हुए कहा था-
साँच बराबर तप नहीं, झूठ बराबर पाप।
जाके हदय साँच है, ताको हदय आप।।
अर्थात् सत्य के समान कोई तपस्या नहीं है और झूठ के समान कोई पाप नहीं है। जिसके हदय में सत्य का वास है, उसी के हदय के परमात्मा का निवास है। इस अर्थ का तात्पर्य यह है कि सत्य ऐसी एक महान तपस्या है, जिससे बढ़कर और कोई तपस्या नहीं हो सकती है। इसी तरह से झूठ एक ऐसा घोर पाप है, जिससे बढ़कर और कोई पाप नहीं हो सकता है। अतएव सत्य रूपी तपस्या के द्वारा ही ईश्वर की प्राप्ति सम्भव होती है। कहने का भाव यह है कि सत्य का घोर साधना है, जिसकी प्राप्ति मानवता की प्राप्ति है, देवत्व की प्राप्ति है और यही जीवन की सार्थकता है।
संसार में अनेकानेक महामानवों ने सत्यानुसरण करके सत्य का महत्व सिद्ध किया है। राजा दशरथ ने अपने सत्य वचन के पालन के लिए ही प्राण प्यारे राम को बनवास देने में तनिक भी देर नहीं लगाई और अपने प्राणों का त्याग यह कहकर सहज ही कर दिया था-
रघुकुल रीति सदा चलि गई। प्राण जाई पर वचन न जाई।।
राजा दशरथ से पूर्व सत्यवादी हरिशचन्द्र ने सत्य का अनुसरण करते हुए अपने को डोम के हाथ तथा अपनी पत्नी और पुत्र को एक ब्राहमण के हाथ बेच करके घोरतम कष्ट और विपदाओं को सहने का पूरा प्रयास किया, लेकिन इस ग्रहण किए हुए सत्यपथ से कभी पीछे कदम नहीं हटाया। इसी प्रकार से महाभारत काल में भी सत्य का पालन करने के लिए भीष्म पितामह ने कभी भी अपनी सत्य प्रतिज्ञाओं का निर्वाह करने में हिम्मत नहीं हारी। आधुनिक युग में महात्मा गाँधी की सत्याग्रह सत्य को चरितार्थ करने में पूर्णत सफल सिद्ध होता है। उनका सत्याग्रह आज भी कार्यशील है, और प्रभावशाली भी है।
सत्यं, शिवम् और सुन्दरम ही परमात्मा का सम्पूर्ण स्वरूप है। उसमें सत्य प्रथम है। वास्तव में सत्य की महिमा सर्वोपरि है, सर्वाधिक है।

झूठ को बहुत बड़ा पाप माना गया है, जो लोग झूठ बोलते हैं उन्हें सर्वदा पश्चाताप की आग में जलना पड़ता है। यदि कोई एक झूठ बोलता है तो उसे इस झूठ को छिपाने के लिए फिर कई झूठ बोलने पड़ते हैं। झूठ की सबसे बड़ी कमी है कि यदि हम कभी झूठ बोलते हैं तो उसे याद रखना पड़ता है ताकि अगले को कोई शक न हो जाए या हमसे कोई गलती न हो जाए। अतः सत्य को सर्वश्रेष्ठ माना गया है और ऊपर कही गयी उक्ति सार्थक सिद्ध होती है। 

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